विश्व गुरु बनने का अवसर आया

कोरोना नामक विषाणु से उत्पन्न महामारी के खतरे का तात्कालिक दोहरा दुष्परिणाम देश की प्रवासी जनसंख्या भुगत रही है। यह अंग्रेजों द्वारा विरासत में सौपी गयी एक पक्षयीय औद्योगिक कुनीति का पहला विस्तारित दुष्परिणाम है। ये लोग देश के वो नागरिक हैं जो देश की ग्रामीण जनसंख्या से आते हैं। कभी इस बड़ी जनसंख्या के जीवन यापन का आधार कृषिकृषि आधरित व्यवसाय या उस पर आधारित नौकरी हुआ करता था लेकिन आज़ादी के बाद सरकार की अंग्रेज परस्त औद्योगिक नीतियों ने कृषि को पृष्ठभूमि में धकेल दिया। धीरे धीरे सामजिक अर्थव्यवस्था से किसानों की पकड़ ख़तम हो गयी और उस पर वैश्विक बाज़ार का कब्ज़ा हो गया। कालान्तर में कृषि अर्थ व्यवस्था पर निर्भर जनसंख्या बेरोज़गार होकर जीवकोपार्जन की तलाश में पलायित करने लगी। यह औद्योगिककरण की आवश्यक आवश्यकता है क्योंकि कृषि कार्य से पलायित मजदूर उद्योगों के लिए वरदान होतें हैं। ऐसे लोग उद्योग में कम मज़दूरी पर ज्यादा घंटे काम करने के लिए बाध्य हो जातें हैं।
इस महामारी ने उद्योग के दम पर स्वयंभू महाशक्ति बन बैठे देशों को मानव जीवन की मूलभूत आवश्यकता से अवगत होने का एक सुनहरा अवसर दिया है। समूचे विश्व पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित करने वाली प्रवृतियों को जो तकनीक के दम पर ब्रह्माण्ड पार करनेमंगल ग्रह पर बस्ती बनानेएक ही बम के विस्फोट से दुनिया को तबाह करनेप्रकृति की मूल संरचना से छेड़छाड़ करके उत्पादक पेड़ पौधे और जीव जंतु बनानेपृथ्वी के प्रकृति संसाधन का दोहन करनेको एक सबक सिखाया है। प्रकृति का सन्देश स्पष्ट सन्देश है कि अंतकाल में कृषि उत्पाद अन्नसब्ज़ी और फल ही जीवन बचाने के काम आएंगे। 
इस नैसर्गिक नियम के विरूद्ध भारत में सरकार दर सरकार कृषि की बर्बादी पर उद्योगों का महल खड़ा करते रहें परिणामस्वरूप सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा वर्ष 1951 में 52.2 फीसदी से घटकर वर्ष 2017 में मात्र 15.4 फीसदी रह गया। वह भी तब जब कृषि उत्पाद बढ़ाने के लिए देश में हरित क्रांति और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर डंकल समझौते का हिस्सा बनना पड़ा।
हिस्ट्री ऑफ़ दी ग्लोबल इकॉनमी के अनुसार वर्ष 1860 से 1914 के बीच कृषि भूमि सीमा के विस्तार के कारण ब्रिटिश इंडिया में कृषि आय जीडीपी का सबसे मजबूत अंशदाता था। ब्रिटिश अर्थशास्त्री एंगस मैडिसन के अनुसार वर्ष 1700 में अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में भारत का हिस्सा में 22.6% था जो वर्ष 2017-18 में घटकर 7.6% रह गया। यह संकेत है कि हमारी सरकारों की प्राथमिकता में कृषि नहीं है। अनंतकाल से भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि रही है। स्वतन्त्र भारत में कृषि की उपेक्षा का ही परिणाम है कि वर्ष 2018 में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद की सूची में देश 120 वे स्थान पर पहुंच गया।
विपत्ति काल दीर्घायु नहीं होता है और हर समस्या कुछ अवसर लेकर आती है। प्रकृति पर निर्भर भारत की जनता कोरोना को ज़रूर मात देगी। उसके बाद भारत के पास एक बार फिर से विश्व गुरु बनने का अवसर आएगा लेकिन यहाँ के हुक्मरानों को यह याद रखना पडेगा कि ये अवसर अपनी मूलभूत नैसर्गिक परम्पराओं के अनुसार देश के आध्यात्मिकशारीरिक और आर्थिक विकास के द्वारा संभव होगा। जिसमें प्राथमिकता का केंद्र कृषिकृषि आधरित व्यवसाय और उस पर आधारित नौकरी होने चाहिए। इसी कृषि के कारण हम 1990 से 1993 के दौरान आयी वैश्विक आर्थिक मंदी के समय भी बिना मंदी से प्रभावित हुए अडिग खड़े रहे थें।
महामारी के खतरे के कारण उत्पन्न परिस्थितियों में सपरिवार भूखे प्यासे पैदल 500 किलोमीटर की यात्रा करके एक बार फिर औधोगिक क्षेत्र से कृषि क्षेत्र में लौटे कर्मवीर ही कृषि को उन्नत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। आवश्यकता है उनको स्थानीय स्तर पर रोगजारस्वास्थ्य और शिक्षा उपलब्ध कराया जाये। यह मुश्किल काम नहीं है बस सरकार की इच्छाशक्ति होनी चाहिए। यहाँ सावधानी बरतनी पड़ेगी कि देश के बड़े शर्मायादार और वैश्विक बाज़ार की गिद्धदृष्टि इस व्यावसायिक क्षेत्र पर नहीं पड़ने पाए।
द्वारा,
रवीन्द्र प्रताप सिंह
9453218238
राष्ट्रीय संयोजक -अवध राज्य आंदोलन समिति

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