क्यूं होता है मुस्लिम वोटों में बिखराव  मुस्लिम वोट बैंक पर  सबकी नजर 

हुजैफ़ा

देश की आजादी में सभी धर्मो के लोगों ने अपने स्तर और अपनी सामर्थ के अनुसार अपना योगदान दिया। आजादी मिलने के बाद जब देश में पहली लोकसभा का गठन किया गया तो उसमें कुछ मुस्लिम नेता भी थे, जो मंत्री भी बने। सभी धर्मो के नेताओं ने अपनी कौम के लिये कुछ न कुछ काम जरुर किये जिसका असर आज उस समाज के लोगों के विकास से देखा जा सकता है। किन्तु मुस्लिम नेताओं ने अपनी कौम से गददरी की और उसे आगे बढऩे से रोकते हुए उसे सिर्फ अपने फायदे के लिये वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया। जिसका नतीजा आज देश की आजादी के ६५ सालों बाद भी मुस्लिम समाज अन्य धर्मो के लोगों की अपेक्षा पिछडा हुआ और अपने धर्म गुरुओं के बयानों और वोटों की सौदेबाजी में फंसकर अपने वोट की कीमत ही भूल गया है। मुस्लिम समाज के वोटों के रुख पर ही लोग अपनी जीत के दावे करते और सत्ता पाने के सपने देखते रहते है। अब सवाल यह उठता है कि सिर्फ मुस्लिम वोटों पर ही सब की नजर क्यूं होती है। इसका सीधा सा जवाब है कि मुस्लिम वोटों में ही समय और परिस्थितियों के अनुसार सबसे अधिक बिखराव होता है, इसी कारण सभी पार्टियोंं की नजऱ मुस्लिम वोटों पर होती है। 

एक वरिष्ठï नेता ने बताया पिछडों का वोट एक ही तरफ पडता, हिन्दुओं का वोट बैंक भी सही जगह पडता किन्तु मुस्लिम कम पढ़े लिखे होने के कारण अपना वोट अपने धर्म गुरुओं और फतवों पर देते है इसलिये मुस्लिम वोटों को पाने के लिये इनके धर्म गुरुओं से पार्टियों दोस्ती रखती और इनके गुरुओं को पार्टी में पदाधिकारी बनाक र समय के अनुसार इनके वोटों का सौदा करती, पार्टियों और प्रत्याशियों को जिताने के लिये बयान जारी करते और इनके मंचों पर अपनी उपस्थिति देकर उस पार्टी के साथ खुद खडे होकर उस पार्टी को जिताने का पैगाम अपनी क ौम को देते है। 

आजादी के बाद से कई दशकों तक मुस्लमानों का वोट सिर्फ कांग्रेस को ही जाता रहा। मुसलमान इस पार्टी को अपनी पार्टी कहते और अपनी बिरादरी के नेताओं के कहने पर इस आस में कांग्रेस को वोट देते की सरकार हमारे लिये योजनाएं लाकर हमारा विकास करेगी, हम भी अन्य धर्मो के लोगों की तरह किसी पद पर नौकरी पाकर अपने परिवार को अच्छा जीवन दे सकते किन्तु कांग्रेस और मुस्लिम नेताओं ने अपनी कौम से गददारी करते हुए उसके विकास को रोके रखा, और उसे एक वोट बैंक से आगे बढने ही नहीं दिया। यह सिलसिल १९७५ के आपातकाल तक जारी रहा। आपातकाल के जुल्मों से तंग आकर मुसलमानों का मोह कांग्रेस से धीरे-धीरे भंग होने लगा और १९७७ के आम चुनावों में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल होना पड़ा। यह पहला अवसर था जब देश की राजनीति में मुस्लिमों के वोटों में बिखराव देखा गया। यहीं वह समय था जब देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। देश सहित प्रदेश में कई लोकसभा और विधानसभाएं है जहां मुस्लिम आबादी निर्णयक स्थिति में होती है। इसलिये अब अल्पसंख्यकों को नजरंआदाज नहीं किया जा सकता है। मुस्लिम मतदाता भले ही अन्य धर्मो की अपेक्षा अल्पसंख्यकों की श्रेणी में आते हो लेकिन इनके वोटों पर सभी की निगाहें होती है। आज बहुत सी क्षेत्रिय पार्टियां भी मुसलमानों के वोटों को पाने के लिये उनकी खौरखवाह बनने का काम कर रही है। देश में एक बार फिर लोकसभा चुनाव हो रहे है कई चरण का मतदान पूरा हो चुका और कई चरणों का मतदान अभी होना है। हर पार्टी के नेताओं द्वारा बयानों द्वारा सबसे अधिक मुसलमानों के वोटों पर सियासत खेली जा रही है। वह पार्टी जिसे अब तक मुसलमानों की दुश्मन करार दिया जा रहा था उसके नेताओं के साथ मुसलिम धर्म गुरुओं की मौजूदगी यह दर्शा रही कि यह पार्टी भी अब जान चुकी है कि प्रदेश को पार पाने के लिये अल्पसंख्यकों के वोटों का बहुत महत्व है, इसीलिये इस पार्टी के नेताओं का सबसे अधिक रुझान अल्पसंख्यक वोटरों की ओर है जो क्षेत्रिय और केन्द्रीय पार्टी से इस समय नाराज चल रहा है। सरकार बनाने के दोबारा सपने देख रही पार्टी इस अवसर को पूरी तरह भुनाना चाह रही है। इस पार्टी के नेता भी आये दिन किसी न किसी मुस्लिम धर्म गुरु के साथ  फोटों खिचवाकर अखबार में छपवाकर यह जताने की कोशिशें कर रही कि उनसे बडा हितौशी अल्पसंख्यकों का कोई दूसरा नहीं है। अब मतदाता जागरुक हो चुका है, वह अपने धर्मगुरुओं के आदेशों, बातों और नसीहतों को मानने से पहले परखता है या परिवार में शिक्षितों से राय लेकर ही अपनी राय बनाता है। अब पार्टियों को मुस्लिम वोटरों को रिझाने के साथ उनके लिये काम भी करना पडेगा। अब मतदाता पहले की अपेक्षा जागरुक होकर नेताओं की बातों और वादों को सच्चाई की कसौटी पर कसने लगा है। 

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