नवरात्रि में नव संख्या का अध्यात्मिक महत्व है : महंत विशाल गौड़
नौ की संख्या अखण्ड, अविकारी, एक रस, पूर्णब्रह्म की प्रतीक मानी गई है। नवरात्रि में नव व्रत का धार्मिक महत्व होता है, वैसे तो काल गणना से इसका विशेष आध्यात्मिक और पौराणिक कथाओं में वर्णित किया गया है।
नौ के पहाड़े से इस संख्या की पूर्णता को भलीभाँति समझा जा सकता है। नौ के पहाड़े की प्रत्येक संख्या का योग भी नौ ही होता है।
यज्ञोपवीत में भी नौ गुण (धागे) होते हैं, जो कि पूर्णब्रह्म के प्रतीक हैं। शक्ति की साधना द्वारा साधक में जिन नौ गुणों का संचार होता है, वह नवरात्र-उपासना से ही सम्भव है। शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता इन सभी नौ गुणों से युक्त व्यक्ति ही शक्तिशाली कहा गया है।
विद्वानों ने पुरुषार्थ चतुष्टय को भी दो जोड़ों में समाविष्ट किया है। अर्थ का विनियोग धर्म में और काम को जिज्ञासारूप बनाकर मोक्ष में अन्तर्मूत कर देने से पुरूषार्थ के प्रतीक दो नवरात्र ही विशेष महत्व रहते हैं। वासन्तिक (चैत्र) नवरात्र तथा शारदीय (आश्विन) नवरात्र! इन दोनों प्रधान नवरात्रों की प्रमुखता और सर्वमान्यता के भी कुछ आधारभूत कारण हैं। शक्ति की विशेष उपासना के लिए नौ दिन±रात्रि ही क्यों नियत किये गए? यह कम और अधिक क्यों नहीं है। दुर्गामाता में नवविद्या हैं, इसलिए उनकी उपासना के नौ दिन नियत किये गये हैं। नवरात्र के नौ दिनों में देवी के नौ स्वरूपों की पूजा-अर्चना का विधान है।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति वूâष्माण्डेति चतुर्थकम् ।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रिति महागौरीति चाष्टमम् ।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता: ।
शक्ति-उपासना के लिए नौ संख्या का दूसरा कारण यह है कि वर्ष के चालीसवें भाग का यह नवरात्रि प्रतिनिधित्व करती हैं, अत: तंत्रोक्त मंडल की सिद्धि हेतु नौ दिन की नवरात्र-साधना ही नियत होती है।
तीसरा कारण यह है कि शक्ति के तीन गुण हैं– सत्व, रज और तम! इनको तिगुना करने पर योग नौ ही होते हैं। जिस प्रकार यज्ञोपवीत में तीन बड़े धागे होते हैं, और प्रत्येक धागा तीन धागों का समन्वय होता है–इस प्रकार नौ सूत्रों से यज्ञोपवीत बनता है, वैसे ही प्रकृति-योगमाया का त्रिवृत् गुणात्मक रूप से नव-विध होता है।
महाशक्ति दुर्गा की समग्ररूप से आराधना करने के निमित से ही नवरात्र के नौ दिन निर्धारित किये गये हैं। हर दिन अलग भोग, अलग रंग का प्रवधान है, माता रानी को अनार भोग में प्रिय है अनार स्मृति और उर्वरता का प्रतीक माना गया है।
मानव-जीवन में प्राणों का संचरण करने वाली ऋतुएँ हैं–बसंत, ग्रीष्म, पावस, वर्षा, शरद और शिशिर। शीतऋतु और ग्रीष्म ऋतु। विश्व के लिए ये दोनों ऋतुएँ वरदान-युगल के रूप में प्रकृति ने प्रदान की हैं।
ग्रीष्म ऋतु में दलहन, शीत-काल में चावल जैसे जीवन-पोषक, अनाज प्रदान करती है। दलहन के रूप में अग्नि तथा चावल के रूप में सोम– अर्थात् , ‘अग्नि-सोम’ के युगल का यह प्राण-पोषक उपहार हमें इन दो प्रधान नवरात्रों में ही प्रकृति से प्राप्त होता है। परब्रह्म श्रीराम का अथवा नवगौरी की नवरात्र-साधना चैत्र में एवं नवदुर्गा अथवा महालक्ष्मी की नवरात्र-साधना आश्विन में करने की परम्परा सर्वमान्य हो गई है। जिन साधकों की दृष्टि में शक्ति और शक्तिमान में कोई भेद नहीं है, वे शारदीय नवरात्र को ही अपनी उपासना का सर्वोत्तम अवसर मानते हैं।
Mahant vishal Gawd Sri Kotwaleshver Mahader Mander Lucknow
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