मनुष्य का मन एवं उसकी शक्तियाँ
मनुष्य का मन एवं उसकी शक्तियाँ
सर्वविदित है कि ईश्वर का अंश एक है और वह अपने उसी अंश से सृष्टि के सृजन से लेकर विनाश तक अलग-अलग रूप में अपनी भूमिका का निर्वहन करता है। मनुष्य का ब्रह्माण्ड तुल्य स्थूल शरीर भी उसी ईश्वरीय अंश रूपी पंचतत्वों से सृजित है। मनुष्य के स्थूल शरीर के मस्तिष्क में चेतना रूपी शिव के अंश से ही नाभि में ब्रह्मा स्थान तथा हृदय में विष्णु रूप में स्थापित होकर क्रमश: सृजन एवं ब्रह्माण्ड रूपी शरीर के संचालन का दायित्व निभाते हुए स्वयं चेतना कैलाश रूपी मस्तिष्क में अन्त:चतुष्टय इन्द्रियों अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार का जन्मदाता बनकर मानव जीवन यात्रा में अपनी भूमिका का निर्वहन करता है। मनुष्य शरीर में अलग-अलग भूमिकाओं में सभी में इसी प्रकार ईश्वरीय अंश की शक्ति विद्यमान है जिनके अलग-अलग दायित्व एवं महत्व हैं। इसी में एक महत्वपूर्ण एवं अत्यन्त ही शक्तिशाली अंश है 'मनÓ जो कि मनुष्य की जीवन यात्रा में उसके उददेश्यों की प्राप्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, कहावत है कि 'मन के जीते जीत है, मन के हारे हारÓ इसका अभिप्राय यह है कि यदि मन पर नियंत्रण पा लिया जाय तो मनुष्य बड़ी से बड़ी अकल्पनीय शक्तियों का धारक बन जाता है, यहाँ तक कि देवत्व की शक्तियों सहित मुक्ति के साधन भी सम्भव हैं। उदाहरणार्थ -मन यदि उर्जित है अर्थात् ऊर्जा से भरपूर है तो मनुष्य बड़ी से बड़ी आश्चर्यजनक घटनाओं को अंजाम दे जाता है, चाहे वह एवरेस्ट की चढ़ाई हो अथवा कोई असम्भव सा दिखने वाला अकल्पनीय सेटेलाइट एवं परमाणुयुक्त यंत्रों का आविष्कार करना हो परन्तु यदि मन कमजोर हो तो मनुष्य का शरीर उस कर्म के लिए स्वत: निष्क्रिय एवं शिथिल हो जाता है।
मनुष्य का 'मनÓ ही मस्तिष्क के माध्यम से शरीर की समस्त तत्रिंकाओं में पुरूष (चेतना) एवं प्रकृति (आदिशक्ति) दोनों की संयुक्त उर्जा का संचार करता है उदाहरण के रूप में समझा जा सकता है कि यदि किसी मनुष्य को प्यास लगी है और मन सक्रिय है तो प्यास बुझाने के लिए उसका शरीर एवं उसकी इन्द्रियां जल ग्रहण करने की समस्त क्रियाओं में सक्रिय हो जाती है परन्तु यदि किसी मनुष्य को प्यास तो लगी हो परन्तु मन शिथिल एवं निष्क्रिय हो तो उसका शरीर एवं आवश्यक अंग भी स्वत: निष्क्रिय हो जाते हैं और वह अपेक्षा करता है कि कोई दूसरा व्यक्ति जल लाकर उसके मुख में डाल दे। दूसरे शब्दों मे स्थूल एवं सूक्ष्य शरीर की ऊर्जा के संतुलन का माध्यम भी 'मनÓ ही होता है इसीलिए मानव शरीर को रथ तथा उसकी 10 इन्द्रियों को रथ के 10 घोड़े तथा मन को उस रथ का लगाम अथवा सारथी कहा जाता है, मन संसार में सबसे अधिक शक्तिशाली एवं गतिमान एवं बेलगाम अंश होता है एवं सदैव वह शरीर एवं इन्द्रियों को वश में करने के लिए लालायित रहता है।
मनुष्य में मन के दो रूप होते है जिसे प्रबन्धकीय शिक्षा में 'चेतनÓ एवं 'अवचेतनÓ मन कहा जाता है परन्तु अध्यात्म में इसको सूक्ष्य एवं वाह्य मन की संज्ञा दी जाती है, सूक्ष्य मन सुषुप्तावस्था में रहता है तथा वाह्य मन अधिकांशत: आवश्यकता के स्थान पर इच्छाओं के विकल्प का चयन करता है तथा आलस्य, काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार, ईष्या, छल, कपट, द्वेष के विकारों से ओतप्रोत रहता है, उसकी एक इच्छा की पूर्ति होते ही वह उससे बड़ी अथवा दूसरी कई इच्छाओं की लिस्ट प्रस्तुत करता रहता है तथा इन्हीं विकारों के कारण मनुष्य अंशात रहता है। सूक्ष्य मन एकदम शांत, निर्मल एवं पवित्र एवं सृजनात्मक होता है, यदि वाह्य मन को नियत्रिंत कर सूक्ष्य मन से जीवन संचालन का प्रयास किया जाये तो मनुष्य को इन विकारों से मुक्ति मिल जाती है और तब वाह्य मन भी अपनी इच्छाओं के स्थान पर केवल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही क्रियाशाील रहता है, सूक्ष्य मन की सक्रियता से मन शांत होता है एवं अन्र्तमन में भरा उर्जा भंडार जागृत होकर मनुष्य में सृजनात्मक एवं आश्चर्यजनक अलौकिक शक्ति की सिद्धियों का स्वामी बना देता है। वाह्य मन के विचारों को नियंत्रित कर सूक्ष्य मन की ओर केन्द्रित करने के लिए विकारयुक्त विचारों का परित्याग करना होता है जिसके तीन चरण होते है विचारों का दर्शन, विचारों की सर्जरी एवं तत्पश्चात विचारों का विसर्जन। विचारों का दर्शन अर्थात अपने मन के बारे में पूर्णतया अध्ययन एवं विश्लेषण कर यह जानकारी प्राप्त करना कि उसके मन में किस प्रवृत्ति के विचारों की प्रधानता अधिक है, किन प्रदूषित अर्थात विकारपूर्ण विचारों से हमारा कर्म प्रभावित होता है तथा किन विचारों को अपनाकर सूक्ष्य मन को सक्रिय किया जा सकता है। विचारों की सर्जरी अर्थात अपने मन के विचारों का दर्शन करने के पश्चात् किन प्रदूषित विकारपूर्ण विचारों को परित्याग करना है तथा किन विचारों को प्राथमिकता देना है उसके लिए सर्जरी की योजना बनाकर सर्वप्रथम आँखों को बन्द कर 'ध्यान मुद्राÓ (अंगूठें के ऊपरी हिस्से को तर्जनी के ऊपरी हिस्सें को मिला लें) में किसी शांत स्थान पर बैठकर विचारों के केन्द्रबिन्दु अर्थात ललाट में दोनों भौंहों के मध्य स्थिति 'आज्ञा चक्रÓ पर अपना ध्यान केन्द्रित कर उन विचारों की गति एवं विचारों में भटकाव को पढने का प्रयास करें, कदापि मन के बहकावे को रोकने का प्रयास न करे अपितु मन में उत्पन्न विचारों पर अधिक से अधिक ध्यान केन्द्रित कर मन को थकाने का प्रयास करें, कुछ समय पश्चात् आप पायेंगे कि आपका बाहरी मन थककर विचार शून्य होकर धीरे धीरे मन एवं शरीर हल्का होता जायेगा तथा शरीर अर्धनिद्रा अवस्था में आ जायेगा, उस समय शवासन मुद्रा में लेटकर (शरीर के सभी अंग ढीला कर सीधा लेट जायें) संजीवनी मुद्रा (तर्जनी उंगली को अंगूठे के नीचे भाग में लगावें तथा मध्यमा के अग्र भाग से मिलावें, छोटी उंगली को एकदम सीधा रखें) का उपयोग कर अपनी धीमी श्वांसों पर ध्यान केन्द्रित करें, कुछ समय पश्चात आप स्वच्छन्द रूप से निद्रा में चले जायेंगे और जब उठेंगे तो महसूस करेंगे कि आपका मन एकदम शान्त, विचारों से शून्य तथा शरीर हल्का होगा और आप पायेंगे कि आपने अपने मन से प्रदूषित विचारों को पढऩे एवं उसको विचारों से हटाने की विद्या प्राप्त कर ली है। विचारों का विसर्जन यह क्रिया जागृत एवं ध्यान दोनों ही अवस्था में की जा सकती है अर्थात् जैसे मन में कोई विकारयुक्त विचार उत्पन्न हो तो उसको रोकने का प्रयास न करे बल्कि विचारों का जन्म होने दे परन्तु यह कार्य अवश्य करें कि जैसे ही कोई अनावश्यक आवश्यकताओं के विपरीत अथवा विकारयुक्त विचार उत्पन्न हो उस विचार का तत्काल परित्याग करने की आदत डालते रहे आप पायेगें कि आपने अपने चंचल एवं विकारयुक्त विचारों पर अतिशीघ्र एवं आसानी से विजय प्राप्त कर ली है इस क्रिया के पश्चात आपका वाह्य मन धीरे धीरे कमजोर पड़ता जायेगा तथा सूक्ष्म मन सक्रिय होता चला जायेगा। 'मनÓ नियंत्रित करने की यह क्रिया अत्यन्त ही व्यावहारिक एवं सरल है, आप एक दिन में ही इस विधि को अपनाने से परिणाम को प्रत्यक्ष होते महसूस कर सकते हैं, ऐसा निरन्तर करते रहने से यह आपके स्वभाव में परिणित हो जायेगा तथा आपका व्यक्तित्व (औरा) इतना वृहद एवं शक्तिशाली हो जायेगा कि आप जिसके समक्ष खड़े होगे वह आपसे प्रभावित हो जायेगा तथा आप कार्यों की कल्पना से ही कार्य की सम्पन्नता की परिणति अनुभव कर पायेंगे तथा इन सामान्य सी विधा का उपयोग कर मनुष्य अपने सुषुप्त सूक्ष्म मन को जागृत कर दैवीय शक्तियों के उर्जा भण्डार से अलौकिक एवं आश्चर्यचकित करने वाली शक्तियों को हासिल कर अपने जीवन के उददेश्यों के पूर्ति कर मुक्ति प्राप्त कर सकता है। आशा है कि इस लेख के माध्यम से मन को नियंत्रित कर स्वयं शक्ति प्राप्त करने के उपायों का परीक्षण कर अपने अनुभवों को हमसे अवश्य शेयर करेंगे।
एस.वी. सिंह 'प्रहरी
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